राग बसंत का परिचय और स्वरलिपि || INTRODUCTION AND MELODY OF RAGA BASANT || RAAG BASANT NOTES IN HINDI || CLASSICAL MUSIC

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राग  बसंत का परिचय :-
RAAG BASNT

राग बसंत एक प्रशिद्ध प्राचीन राग है | इसका उल्लेख प्रत्येक प्राचीन ग्रन्थ में मिलता है | यह अवस्य है की वर्तमान बसंत राग का स्वरुप प्राचीन स्वरुप से भिन्न हो गया है | विभिन्न ग्रंथकारो ने विविध प्रकार के बसंत का वर्णन भी किया है | .यहाँ पर   प्रचलित स्वरुप की व्याख्या की जा रही है |इस राग को पूर्वी थाट जन्य माना गया  है | इसमें ऋषभ- धैवत कोमल व दोनों मध्यम प्रयोग किये जाते है |   

आरोह में ऋषभ पंचम वर्ज्य है और अवहरोह  में सतो स्वर प्रयोग किये किये जाते है ,इसलिए इसकी जाती औडव सम्पूर्ण है | वादी  स्वर तार सा और सम्वादी पंचम है | इस राग का गायन समय रात्रि का अंतिम प्रहार है| 

कभी -कभी शुद्ध धैवत युक्त बसंत की भी चर्चा सुनी जाती है | इस प्रकार के बसंत को मड़वा थाट जन्य माना गया है ,किन्तु यह प्रकार कभी सुनाई नहीं पड़ता | कुछ पुराने संगीतज्ञ इसमें केवल तीर्व माधयम प्रोयग करते हुये सुनाई  परते  है किन्तु वर्तमान  प्रचलित बसंत में शुद्ध माध्यम का अलप प्रयोग आरोह में इस प्रकार सुनाइ पड़ता है सा म ,म ग ,म ग रे सा | कभी -कभी यहाँ पर ललित अंग भी दिखा देते है ,किन्तु ललितअंग दिखाना आवश्यक नहीं है | राग की  जाती के विसय में विद्वानों में मतभेद है | कुछ ने औडव -सम्पूर्ण कुछ ने षाडव -सम्पूर्ण और कुछ ने सम्पूर्ण जाती का राग माना है | 

राग बसंत के समय का राग परज है | परज भी उत्तरांग प्रधान राग है और दोनों रगों में लगभग सामान स्वर प्रयोग किये जाते है | चलन -भेद के कारन दोनों राग पृथक किये जाते हैं | राग बसंत के आरोह में निषाद अल्प है |,तो परज के आरोह में यही स्वर बहुत है | इसलिये राग बसंत में म ध सं अथवा म ध रें सं प्रयोग किये जाते हैं | 

 स्वरलिपि

Musical Score

भारत जैसे देश में अनेक स्वरलिपि – पध्दतियाँ प्रचलन में है इसमें से मत्वपूर्ण स्टाफ नोटेशन पद्धति है।  किसी रचना में जब एक साथ अनेकों वाद्यों का वादन होता है तो स्टाफ (Staff Notation) पद्धति की सहायता से ही वादन अपने – अपने भाग का उचित स्थान पर वादन में सफल हो पाते है। स्टाफ नोटेशन लिखित संगीत के आधार पर बनाए जाते हैं । 

पाष्चात्य संगीत पद्धति अपने विकास के लम्बे दौर से गुजरने  के बाद पाष्चात्य स्वरलिपि पद्धति ‘ आज अपने वर्तमान स्वरुप में स्थापित हो चूकी है। यह स्टाफ नोटेशन के रूप में लगभग पूर्ण रूप प्राप्त कर चुकी है। यही प्रमुख कारण है कि अधिकांश देशो के लोग यही नोटेशन (Notation) अपनी रचनाओं को लिपिबद्ध करने के लिए अपनाते है।  

पश्चिमी देशो में जो संगीत पद्धति होती है ,उस संगीत को पाश्चात्य संगीत पद्धति कहते हैं । भारतीय स्वरलिपि पद्धति का इतिहास अति प्राचीन नहीं है ,क्योँकि यहाँ गुरु – शिष्य परम्परा के कारन स्वरलिपि  पद्धति का विकास पूर्णतः नहीं हो पाया ,परन्तु इसके विपरीत पाश्चात्य संगीत में स्वरलिपि पध्दति अधिक प्रणालीबध्द तथा व्यवस्थित ,सरल व परिष्कृत है , इसका कारन  यह है कि पाश्चात्य संगीत में मौखिक संगीत के स्थान  पर लिखित संगीत पर अधिक बल दिया जाता है।  इतिहासकारों  का कहना है कि ग्रीक दार्शनिक पैथागोरस ही (ई.पू.584-500) प्रथम यूरोपीय थे , जिन्होंने आधुनिक स्वरलिपि पद्धति की नीव रखी। इनसे  पहले ग्रीक संगीत अक्षरो में लिखा जाता था। ग्रीक के लोग ही पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने संगीत में लिखित सामग्री छोड़ी। 

भारतवर्ष में जिस प्रकार भातखण्डे एवं पलुस्कर स्वरलिपि पद्धतियाँ प्रचार में है ,उसी प्रकार पाश्चात्य संगीत में भी स्वरलिपि पद्धति  का अपने तरीके  से  प्रचार एवं प्रसार किया गया। 

 रागों को पूर्वांग और उत्तरांग में विभाजित करने के लिए सप्तक के सात स्वरों के साथ तार सप्तक के षडज स्वर को मिला कर आठ स्वरों के संयोजन को दो भागों में बाँट दिया जाता है। प्रथम भाग षडज से मध्यम तक पूर्वांग और दूसरे भाग पंचम से तार षडज तक उत्तरांग कहा जाता है। इसी प्रकार जो राग दिन के पहले भाग (पूर्वार्द्ध) अर्थात दिन के 12 बजे से रात्रि के 12 बजे के बीच में गाया-बजाया जाता हो उन्हें पूर्व राग और जो राग दिन के दूसरे भाग (उत्तरार्द्ध) अर्थात रात्रि 12 बजे से दिन के 12 बजे के बीच गाया-बजाया जाता हो उन्हें उत्तर राग कहा जाता है। भारतीय संगीत का यह नियम है कि जिन रागों में वादी स्वर सप्तक के पूर्वांग में हो तो उन्हें दिन के पूर्वार्द्ध में और जिन रागों को वादी स्वर सप्तक उत्तरांग में हो उन्हे दिन के उत्तरार्द्ध में गाया-बजाया जाना चाहिए। राग का वादी स्वर यदि सप्तक के प्रथम भाग में है संवादी स्वर निश्चित रूप से सप्तक के दूसरे भाग में होगा। इसी प्रकार यदि वादी स्वर सप्तक के दूसरे भाग में हो तो संवादी स्वर सप्तक के पूर्व में होगा। वादी और संवादी स्वरों में सदैव तीन अथवा चार स्वरों का अन्तर होता है। इसलिए यदि वादी स्वर ऋषभ है तो संवादी स्वर पंचम या धैवत होगा। इसी प्रकार यदि वादी स्वर धैवत हो तो संवादी स्वर गान्धार अथवा ऋषभ होगा। भीमपलासी, बसन्त और भैरवी जैसे कुछ राग इस नियम के अपवाद होते हैं। इस कठनाई को दूर करने के लिए सप्तक के पूर्वांग और उत्तरांग का क्षेत्र बढ़ा दिया जाता है। पूर्वांग का क्षेत्र षडज से पंचम तक और उत्तरांग का क्षेत्र मध्यम से तार सप्तक के षडज तक माना जाता है। इस प्रकार वादी-संवादी में से यदि एक स्वर पूर्वांग में हो तो दूसरा स्वर उत्तरांग में हो जाता है।


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