बन्दिश प्रस्तुतीकरण की विशेषता ||bandish prastutikaran ki visheshta in hindi || CLASSICAL MUSIC

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बन्दिश प्रस्तुतीकरण की विशेषता :-

 कला साहित्य और संगीत में संरचना एक महत्वपूर्ण पहलू है। वस्तु के भाव को स्पष्ट तथा प्रसारित करना रचना का कार्य है। कलात्मक सांगीतिक अभित्यंजना के कारण बंदिश संगीतज्ञ की अभिव्यक्ति रचना कहलाती है, क्योंकि वह आकर्षक और सुमधुर होती है साथ ही अधिकतम के मनोरूप , अपने अंदर के सांगीतिक भावों को सामान्यतः अभिव्यक्ति नहीं दे पाते। संगीतज्ञ अपनी अभिव्यक्ति में अनेक जानो के भावों को भी अपनी रचना द्वारा सुन्दर अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।  

इस रूप में  बंदिश का  तात्पर्य केवल काव्यात्मक रचना ही नहीं है , बल्कि उपरोक्त रूप में काव्यात्मक रचना को राग का एक अविच्छिन्न अंश बताकर उसे कुशलतापूर्वक राग में प्रयोग करना ही बंदिश है। इस प्रकार संगीत में बंदिश कला के प्रस्तुतीकरण का प्रभावशाली माध्यम है। बंदिश की स्वर योजना गीत के भाव और शब्द की पुष्टि करने वाली होती है इस विषय पर भी विभिन्न विचारको के उद्धृत करने की चेष्टा की गई है।  

रमण लाल मेहता के अनुसार , बंदिश राग की एक विशेष आकृति है , उनका कथन है की प्रत्येक बंदिश का मिजाज ()होता है , जिसे साहित्य के नवरसों या संचारी , व्यभिचारी भावों की परिभाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। इस मिजाज या मूड को सझकर जब कलाकार बंदिश प्रस्तुत करता है, तब इसकी आकृति का सौंदर्य खिल जाता है। परिणामस्वरूप स्वर,लय,ताल,शब्द से संयोजित एक विशिष्ट आकृति तथा राग की मनोरम आकृति विशेष का निर्माण सम्भव हो पाता है। 

वमानहरी देशपांडे के मतानुसार , बंदिश एक प्रकार से कलाकार की कलावस्तु या कला स्वरुप की रुपरेखा है। इसे ही राग की प्रतिज्ञा कहना चाहिए। गायक इस पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करता है। उसमे ढाँचे में बढ़त , सृजन ,विस्तार आदि की क्षमता होती है। वह अपने मौलिक रूप में कलाकृति के दृश्टिकोण से सुन्दर व परिपूर्ण होती है। परन्तु उसकी सुन्दरता उसकी बढ़त अथवा विस्तार से अधिक स्पस्ट होती है। एक बंदिश प्रस्तुत करने की समग्र अभिव्यक्ति या पूर्ण कृति पर दृष्टिपात करें , तो वह असंख्य तारों से बानी हुई प्रतीत होती है। बंदिश रूप कलाकृत अनेक स्वरमयी तारों में सूत्र की गई प्रतीत होती है। बंदिश रूपी कलाकृति अनेक स्वरमयी तारों में सूत्र की गई होती है ,जिसमे प्रत्येक स्वर का तेज समय -समय पर परिवर्तित होता रहता है।  

इस प्रकार बंदिश कलाकार से नवनिर्मित विस्तार की अपेक्षा करती है जिसमे राग के विशिष्ट रास संचार भाव के नियमो ,ताल के विभाग ,मात्रा ,सम खाली इत्यादि के संकेतों एवं शब्दों के स्पस्ट उच्च्चरण आदि के अनुशासन अनिवार्य है। अतः बंदिश एक दृस्टि से मर्यादा एवं स्वतंत्रता (Law and Liberty) इन परम्परा विरोधी प्रतीत होने वाले तत्त्वों का विलक्षण समन्वय है। नई – नई रागात्मक कलाकृति के सौंदर्य हेतु एक ही राग के अनेक नए रूप दर्शाने का बंदिश एक उत्तम साधन है।

 संगीत प्रस्तुति

प्रदर्शन का शरीर विज्ञान

संगीत पढ़ना और दृष्टि-पढ़ना , जिसमें आंखों की गति भी शामिल है

स्मृति और संगीत से संबंधित स्मृति से प्रदर्शन

कामचलाऊ व्यवस्था और रचना के कार्य

प्रवाह अनुभव

समूह प्रदर्शन के पारस्परिक / सामाजिक पहलू

संगीत और गैर-संगीत कारकों के प्रभाव सहित दर्शकों या मूल्यांकनकर्ता (जैसे ऑडिशन या प्रतियोगिता ) द्वारा संगीत प्रदर्शन गुणवत्ता मूल्यांकन

ऑडियो इंजीनियरिंग 

बन्दिश का अर्थ

भारतीय संगीत में बंदिशों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। चाहे वह बंदिश के रूप में उत्तर भारतीय संगीत में हो अथवा पल्लवी के रूप में दक्षिण भारतीय संगीत में। वर्तमान समय में ध्रुपद, धमार, ख़्याल, टप्पा, ठुमरी, दादरा आदि सभी गेय रचनाओं को बंदिश की संज्ञा दी जाती है। भारतीय संगीत के इतिहास में ‘बंदिश’ के विभिन्न पर्यायवाची रूप- गीत, रचना, निबद्ध, प्रबन्ध्, वस्तु, रूपक, चीज़, गत इत्यादि प्राप्त होते हैं।

प्राचीन व मध्यकालीन संगीत ग्रन्थों में गेय रचना को सामान्य रूप से ‘गीत’ कहा गया है। जिस की व्यााख्या सर्वप्रथम पं. शारंगदेव ने ‘संगीत रत्नाकार’ में इस प्रकार की है।

रंजक: स्वरसन्दर्भो गीतभित्यभिध्ीयते।

गांध्र्वगान मित्यस्य भेदद्वयमुदीरिंतम्।।

भावार्थ-मन को रंजन करने वाले स्वर-समुदाय को गीत कहते हैं, जिसके ‘गान्ध्र्व’ एवम् ‘गान’ दो नामिक भेद हैं। संगीत रत्नाकार में गीत शब्द का लगभग कोई दस बार प्रयोग हुआ है जो कि सब जगह एक ही अर्थ में नहीं वरन् विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ दिखाई देता है। उनमें से कुछ अर्थ इस प्रकार हैं। गाया गया, नाद सामान्य, गायन, धुन, स्वर विधएं, देशी संगीत का सम्पूर्ण स्वर पक्ष, छन्दक आदि सात गीत, चौदह प्रकरण गीत, प्रबंध, सालग सूड प्रबंध्, शुद्ध सूड प्रबन्ध् और आलप्ति गायन-वादन-नृत्य रूप संगीत आदि। इस प्रकार संगीत रत्नाकर में ‘गीत’ शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

शब्दकोष’ में भी गीत को ‘स्वर-ताल के ढंग से गाए जा सकने वाला वाक्य’ कहा गया है।

बंदिश शब्द मूलत: फारसी भाषा का शब्द है जो कि अपने इसी रूप में फारसी से उर्दू में और तत्पश्चात् उर्दू से संगीत की व्यवहारिक शब्दावली में ग्रहण कर लिया गया है। ‘बंदिश’ शब्द प्राचीन प्रबन्ध् का ही पर्याय है। जिस प्रकार प्रबन्ध् का अर्थ है सुन्दर, श्रेष्ठ व व्यवस्थित रचना, उसी प्रकार बंदिश अर्थात् बन्ध्न राग, स्वर, ताल, लय एवं शब्दों का।

बंदिश का महत्व

प्रत्येक ललित कला में सुन्दर रचना की कामना करना प्रांरभ से ही कलाकारों और कला पारखियों की प्रकृति का स्वाभाविक गुण धर्म रहा है। वास्तुकला जैसी स्थूल कला से लेकर संगीत जैसी सूक्ष्म ललित कला के निरन्तर विकास के लिए यही श्रेष्ठ ‘रचना’ की कामना ही प्रेरणा स्त्रेत का कार्य करती रही है और इसी के परिणाम स्वरूप प्रत्येक कला में सुव्यवस्थित, सुनियोजित सार्थक व चित्ताकर्षक रचनाओं की महत्त्व व सम्मान मिलता रहा है। वैदिक मन्त्रें के उच्चारण से लेकर वर्तमान समय तक भारतीय संगीत विकास के विभिन्न पड़ावों से गुज़रा है। जिसमें समयानुसार अनेक प्रकार के सांगीतिक रूप भारतीय संगीत से जुड़ते रहे परन्तु प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक बंदिश की महत्ता ज्यों की त्यों बनी हुई है।

प्रस्तुतीकरण की विशेषता 

 प्रेषक द्वारा प्राप्तकर्ता को संदेश मौखिक रूप से देना कोई नया नही है । व्यक्तिगत जीवन में, व्यावसायिक जगत में तथा सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में हम प्रतिदिन ग्राहकों, साथियों, मित्रों, कर्मचारियों, नियोक्ताओं, जनता एवं अन्य लोगों के साथ संचार कार्य मौखिक रूप से करते रहते हैं । मौखिक प्रस्तुतिकरण में भाषा का बहुत महत्व है। भाषा मानव समूह में आचरण को समझने में एक मुख्य कुंजी है । भाषा सामाजिक परम्पराओं का एक संस्थान एक प्रतीकों की श्रृंखला तथा एक प्रत्ययों (विचार) की श्रृंखला में विशिष्ट प्रकार के संबंधों का वर्णन करती है । शाब्दिक प्रतीक वाणी (मोखिक) तथा लेखन दोनों में व्यक्त होते हैं किन्त यह बात भी ध्यान देने की है कि अनेक प्रकार के प्रतीक जो कि शब्दों या संख्या से विभिन्न हैं वह भी विचारों का संकेत देने का कार्य करते हैं। जब किसी विचार को एक मौखिक प्रतीक में बदला जाता है तो उसे संहिताबद्ध करना कहते हैं। इसी प्रकार जिस प्रक्रिया के द्वारा मौखिक प्रतीक (शब्द) को एक विचार या संप्रत्यय के संकेत में बदला जाता है उसे संकेत वाचन कहते हैं । प्रभावशाली संचार के लिए यह आवश्यक है कि संहिताबद्ध तथा संकेत वाचन प्रक्रियाओं का एक-दूसरे के साथ तालमेल हो ।

मौखिक प्रस्तुतिकरण के उद्देश्य

व्यवसाय जगत में अनेक अवसरों पर मौखिक प्रस्तुतिकरण किया जाता है । प्रायः ये । प्रमुख अवसर निम्नलिखित हो सकते हैं-

(i) नवीन उत्पाद अथवा सेवा प्रारम्भ करने पर प्रस्तुति;

(ii) नवीन व्यवसायिक विचार की प्रस्तुति; ।

(iii) विपणन एवं विक्रय लक्ष्यों के प्रस्ताव की प्रस्तुति;

(iv) प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारम्भ करने पर प्रस्तुति;

(v) व्यवसाय क्रियाओं में परिवर्तन की जानकारी पर प्रस्तुति;

(vi) विचार गोष्ठी, सभा, सेमिनार इत्यादि पर प्रस्तुति ।

मौखिक प्रस्तुतिकरण सूचनात्मक या प्रोत्साहक हो सकता है। प्रस्तुतिकरण सूचना देने, किसी विचार को अपनाने, वस्तु या सेवा को खरीदने या किसी प्रस्ताव पर सहमति प्राप्त करने के उद्देश से किया जाता है। अत: मौखिक प्रस्तुतिकरण का उददेश्य भी प्रोत्साहित करना, सुचना करना सद्भावना संदेश द्वारा छवि निर्माण करना तथा अस्तित्व बनाये रखना होता है ।

मौखिक प्रस्तुतिकरण की प्रक्रिया

मौखिक प्रस्तुतिकरण की प्रक्रिया में अनेक बिन्दु होते हैं। इन बिन्दुओं से गुजरने के बाद ही मौखिक प्रस्तुतिकरण पूर्ण हो सकता है। अत: इन बिन्दुओं का अध्ययन आवश्यक है । मर्फी, हिल्डर ब्रांड तथा थॉमस ने निम्न 7 बिन्दुओं का वर्णन किया है-

(1) उद्देश्य निर्धारण- सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि प्रस्तुतिकरण का उद्देश्य सूचना देना है, प्रोत्साहित करना है या मनोरंजन करना है। अर्थात् सर्वप्रथम प्रस्तुतिकरण का उद्देश्य निर्धारित किया जाना चाहिए।

(2) श्रोता विश्लेषण- उद्देश्य निर्धारण के पश्चात् श्रोताओं की पहचान तथा उनके परिवेश को जानना आवश्यक है । श्रोताओं की औसत आयु, व्यवसाय,उनके हित, पूर्वाग्रह, दुराग्रह तथा प्रस्तुतिकरण में उनके उपस्थित होने के कारण आदि को जानना अत्यन्त आवश्यक है।

(3) प्रस्तुतिकरण के मुख्य विचार का चुनाव- प्रस्तुतिकरण प्रक्रिया का तीसरा कदम प्रस्तुतिकरण के मुख्य विचार या प्रमुख अवधारणा का चयन करना है। जो विशेष बात श्रोता/श्रोताओं के साथ करना चाहते हैं उसे पहले से ही निर्धारित कर लेना चाहिए ।

(4) विषय अन्वेषण- प्रस्तुतिकरण के मुख्य विचार के चुनाव के बाद यह आवश्यक है कि मुख्य विचार से संबंधित तथ्यों, आँकड़ों तथा अन्य सूचना का संग्रह किया जाये। इस प्रकार विषय अन्वेषण से प्रस्तुतिकर्ता के मस्तिष्क में कुछ नये विचार भी जुड़ सकते हैं जो प्रस्तुतिकरण के समय उसकी सहायता करेंगे। यह विषय अन्वेषण का कार्य प्रस्तुतिकरण के समय से ठीक पहले तक चलते रहना चाहिए ।

(5) आँकड़ों का समावेश एवं प्रारूप लिखना- यह मानने के बाद कि आँकड़ों एवं सूचनाओं का संग्रह पूर्ण हो गया है प्रस्तुतिकरण की प्रारंभिक रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए जिसमें संग्रहीत आँकड़ों एवं सूचनाओं का समोवश हो।

(6) दृष्टव्य सामग्री का प्रयोग- मौखिक प्रस्तुतिकरण प्रक्रिया में प्रारूप तैयार करने के बाद यह निर्धारित करना चाहिए कि प्रस्तुतिकरण के समय किन-किन दृष्टव्य सामग्री का उपयोग किया जाएगा। दृष्टव्य सामग्री वह है जिसके प्रत्यक्ष प्रदर्शन से श्रोताओं को मूल विषय को समझाने में सहायता मिलती है। विभिन्न प्रकार के उपकरण, दृश्यचित्र तथा रेखीय चित्र दृष्टव्य सामपी के अन्तर्गत आते हैं।

(7) पूर्वाभ्यास- प्रस्तुतिकरण के पूर्वाभ्यास का उद्देश्य प्रस्तुतिकरण के समय आत्मविश्वास बढाना तथा विषय सामग्री को भली-भाँति याद करना है। इससे प्रस्तुतिकर्ता प्रस्तुतिकरण के समय सुविधाजनक स्थिति में रहता है । कम से कम 3 बार पूर्वाभ्यास अवश्य ही किया जाना चाहिए। पूर्वाभ्यास के समय ऐसी कल्पना करनी चाहिए कि श्रोतागण आपके सम्मुख है। बड़े वाक्यों तथा अप्रचलित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। एक समय केवल एक बिन्दु का अभ्यास करना चाहिए तथा यह निश्चित करना चाहिए कि उसमें किन सहायक सामग्रियों का प्रयोग उचित रहेगा। श्रोताओं द्वारा पूछे जाने वाले सम्भावित प्रश्नों के उत्तर पहले ही सोच लेने चाहिए। समय का विशेष ध्यान रखना चाहिए । निर्धारित समय पूरा होते ही प्रस्तुतिकरण रोक दें, फिर से आरम्भ करें तथा यह चेष्टा करें कि प्रस्तुतिकरण समय पर पूरा हो जाए।

प्रस्तुतिकरण का नियोजन करते समय-समय सीमा का भी ध्यान रखना चाहिए। इस सन्दर्भ में लुडलो तथा पैनलिन ने निम्न प्रकार के समय का विभाजन किया है-

(A) प्रस्तुतिकरण का परिचय उद्देश्य एवं कारण-समय सीमा का 10%

(B) मुख्य विषय का परिचय- समय सीमा का 20%

(C) मुख्य विषय- समय सीमा का 40%

(D) मुख्य बिन्दुओं का एकत्रीकरण-समय सीमांकन 20%

(E) सारांश एवं निष्कर्ष- समय सीमा का 10%

मौखिक प्रस्तुतिकरण के सिद्धान्त

मौखिक प्रस्तुतिकरण के समय निम्नलिखित सिद्धान्तों का पालन किया जाना चाहिए-

(1) विश्वास का सिद्धान्त- मौखिक प्रस्तुतिकरण का प्रथम एवं मुख्य सिद्धान्त विश्वास का सिद्धान्त है। प्रस्तुतिकरण करने वाले व्यक्ति को स्वयं पर विश्वास होना चाहिए। इसके अतिरिक्त श्रोताओं को भी प्रस्तुतकर्ता पर विश्वास होना आवश्यक है। यदि दोनों को एक दूसरे पर विश्वास नहीं है, तो सफल प्रस्तुतिकरण नहीं हो सकता है क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं। प्रस्तुतकर्ता का व्यक्तित्व विश्वास में काफी सहायक होता है। बोलने का ढंग यदि प्रभावशाली, स्पष्ट तथा मधुर है तो, श्रोता पर विश्वास उत्पन्न होता है।

(2) स्पष्टता का सिद्धान्त- मौखिक प्रस्तुतिकरण में भाषा एवं अर्थ की स्पष्टता होना चाहिए ताकि श्रोतागण उसका वही अर्थ लगाएँ जो प्रस्तुतकर्ता सोचता है। तकनीकी अथवा अधिक कठिन या साहित्यिक भाषा के प्रयोग से बचना चाहिए। यदि स्पष्टता का अभाव होता है तो सफल प्रस्तुतीकरण नहीं हो सकता है।

(3) सरलता का सिद्धान्त- यह चेष्टा की जानी चाहिए कि प्रस्तुतिकरण सरलतम हा ताकि प्रत्येक प्रकार का श्रोता उसे आसानी से समझ सके।

(4) सूचनाओं के स्त्रोत का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण में प्रयोग की जाने वाली सूचनाआ का स्त्रोत विश्वसनीय होना चाहिए तथा स्त्रोत के विषय में श्रोताओं को बताया जाना चाहिए ताकि उनका विश्वास बढ़ सके। यदि सूचनाएँ विश्वसनीय नहीं हैं तो उन पर कोई विश्वास नहीं करेगा।

(5) पर्याप्तता का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण में विषय सामग्री की मात्रा, भार, विस्तार एवं विषय वस्तु आदि का निर्धारण बहुत ही विवेकपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए । अधिक लम्बे, विस्तृत एवं जटिल प्रस्तुतिकरण, ऊब पैदा करने वाले तथा बोझिल सिद्ध होते हैं । सूचनाओं का आधिक्य श्रोताओं की मानसिक क्षमता, चिन्तन एवं कार्य प्रेरणा आदि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है ।

(6) संगतता का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण में प्रयोग होने वाले आँकड़े एवं सूचनाएँ संस्था की प्रचलित नीतियों, उद्देश्यों एवं कार्यक्रमों के विरोध में नहीं होने चाहिए। ये सूचनाएँ परस्पर विरोधी भी नहीं होनी चाहिए। यदि कोई सूचना एक दूसरे की विरोधी है तो सम्पूर्ण प्रस्तुतिकरण व्यर्थ हो जाता है, अतः संगतता आवश्यक है ।

(7) समय का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण में निर्धारित समय सीमा से अधिक समय नहीं लगना चाहिए । समयबद्धता के सिद्धान्त का पालन श्रोताओं पर अच्छा प्रभाव छोड़ता है । अधिक समय श्रोता को थकान एवं अरुचिकर लगता है।

(8) एक रूपता एवं अवसर अनुकूलता में संतुलन- एक ओर यह प्रयास किया जाना चाहिए कि प्रस्तुतिकरण में दिये जाने वाले संदेशों में एकरूपता हो वहीं दूसरी ओर आज के गतिशील व्यवसाय में परिवर्तनों को उपयुक्त महत्व देना चाहिए । दूसरे शब्दों में, एकरूपता एवं परिवर्तन योग्यता अर्थात् अवसर अनुकूलता में एक उचित संतुलन बनाए रखना चाहिए।

(9) श्रोता विश्लेषण का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण के समय प्रस्तुतकर्ता को श्रोताओं की आयु, शिक्षा, योग्यता, ज्ञान तथा संगठनात्मक स्थिति को ध्यान में रखना चाहिए ताकि परस्पर समझ उत्पन्न हो सके तथा अनावश्यक अर्थ की जटिलता समाप्त हो सके। श्रोताओं की आवश्यकताओं, भावनाओं एवं सामाजिक रीति-रिवाजों पर भी आवश्यकतानुसार ध्यान दिया जाना चाहिए।

(10) भावनात्मक अपील का सिद्धान्त- कभी-कभी कुछ विशिष्ट प्रकार के प्रस्तुतिकरणों में तार्किकता एवं बौद्धिकता ही पर्याप्त नहीं होती वरन् उनमें भावनात्मकता का प्रभाव भी प्रकट होना चाहिए तभी श्रोताओं की सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त की जा सकती है।

(11) परामर्श का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण को प्रभावी बनाने के लिए प्रस्तुतकर्ता को अन्य सभी सम्बद्ध व्यक्तियों से परामर्श कर लेना चाहिए। इससे कुछ नये सुझावों एवं नये विचारों का भी ज्ञान हो जाता है।

(12) प्रतिपुष्टि का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण के पश्चात् प्रस्तुतकर्ता को श्रोताओं की भावनाओं, विचारों, सुझावों, आपत्तियों,शंकाओं एवं मतभेदों को जानने का प्रयास करना चाहिए । इससे दोनों पक्षों के बीच सही समझ उत्पन्न होगी तथा प्रस्तुतिकरण का उद्देश्य भी पूर्ण हो जाएगा।

(13) उद्देश्य का सिद्धान्त- प्रस्तुतकर्ता के मन में प्रस्तुतिकरण का उद्देश्य अत्यन्त स्पष्ट एवं निश्चित होना चाहिए। उद्देश्य एक या अधिक हो सकते हैं। प्रस्तुतिकरण का उद्देश्य सचनात्मक प्रोत्साहक, सद्भावना प्रदर्शन या मनोरंजन करना हो सकता है ।

(14) समानुभूति का सिद्धान्त- प्रस्तुतकर्ता को स्वयं को श्रोताओं के स्थान पर रखकर ही प्रस्ततिकरण करना चाहिए। इससे मतैक्यता एवं आपसी समझ बनने में सुविधा होती है ।

(15) पर्वाभ्यास का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण के पूर्व कम से कम तीन बार अवश्य ही पूर्वाभ्यास करना चाहिए। इससे आत्मविश्वास तो बढ़ता ही है, प्रस्तुतिकरण में भी सुविधा हो जाती है। इससे किसी बात को भूलने की सम्भावना समाप्त हो जाती है।

(16) मख्य विचार के चुनाव का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण के मुख्य विचार या अवधारणा का पहले से ही चयन कर लेना चाहिए। इसे श्रोताओं को बताने से प्रस्तुतिकरण रुचिकर बन सकता है।

(17) प्रस्तावना का सिद्धान्त- यह कहा जाता है कि ‘प्रथम प्रभाव ही अंतिम प्रभाव होता है। अतः प्रस्तुतकर्ता को प्रस्तुतिकरण की प्रस्तावना इतनी कुशलता, धैर्य, चतुरता एवं प्रभावशाली ढंग से बनानी चाहिए कि श्रोता प्रस्तुतिकरण के अंतिम क्षणों तक इससे जुड़े रहें।

(18) सहजता का सिद्धान्त- प्रस्तुतकर्ता को श्रोताओं के साथ मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए। इससे वे बड़ी सहजता से अपनी बात उनसे कह पाएँगे तथा श्रोता भी सहजता से इसे स्वीकार कर सकेंगे।

(19) विषय अन्वेषण का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण के विषय से संबंधित सूचनाओं, आँकड़ों एवं अन्य तथ्यों का संग्रह कर लेना चाहिए जिससे कि कुछ नये विचारों को भी मूल विचारों से जोड़ा जा सके। अर्थात् परिवर्तनों को स्वीकार किया जा सके।

(20) सारांश अथवा समापन का सिद्धान्त- प्रस्तुतिकरण का समापन करना भी एक कला है एवं उतना ही महत्वपूर्ण है जितना प्रस्तुतिकरण का प्रारम्भ । लगभग कुल प्रस्तुतिकरण का 10% समय समापन को दिया जाना चाहिए । समापन करने से पहले एवं अंत में अथवा संक्षेप में शब्दों का प्रयोग करके श्रोताओं को यह अहसास करा देना चाहिए कि प्रस्तुतिकरण समाप्त होने वाला है। इस तकनीक से श्रोताओं का ध्यान एक बार फिर अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं और जैसे ही श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित हो, आप अपने मुख्य विचारों को संक्षेप में श्रोताओं के सम्मुख दुहरा सकते हैं। इस प्रकार समापन में केवल सारांश को ही स्थान दें और कोई नया तथ्य प्रस्तुत न करें। समापन मित्रवत् एवं सुखद वातावरण में ही करना चाहिए और श्रोताओं का आभार भी अवश्य प्रकट करना चाहिए।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि फ्रांसिस जे. बेगिन द्वारा बताये गये सात सी को ध्यान में रखना चाहिए-

1. निष्कपट 2. स्पष्ट 3. संक्षिप्त 4. पूर्ण, 5. सही 6. निश्चित तथा 7. शिष्ट ।

प्रस्तुतिकरण को प्रभावित करने वाले तत्त्व

प्रस्तुतिकरण को प्रभावित करने वाले तत्त्व निम्नलिखित हैं-

(1) प्रस्तुतिकरण की प्रकृति- संदेश की प्रकृति एवं इसका प्रस्तुतिकरण इसके प्रभाव को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण होते हैं । प्रस्तुतिकरण के समय यदि दोनों पक्षों का दृष्टिकोण सामने रखा जाए तो कुछ दशाओं में प्रभावशीलता बढ़ जाती है। कुछ दशाओं में केवल प्रस्तुतकर्ता का दृष्टिकोण ही सामने रखने से काम चल जाता है।

मिलर एवं कैम्पबेल ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि- दो दृष्टिकोणों के बीच में जो समय की लम्बाई होती है, उसका प्रस्तुतिकरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

(2) श्रोतागण- यह पाया गया है कि आत्म प्रतिष्ठा का तत्त्व श्रोताओं को एक दृष्टिकोण की ओर मोड़ने में महत्त्वपूर्ण होता है। अतः श्रोताओं की व्यक्तिगत भिन्नताएँ प्रस्तुतिकरण को एक बड़ी सीमा तक प्रभावित करती हैं। श्रोताओं के हाव-भाव, उनकी ध्वनियाँ तथा प्रस्तुतकता से उनके द्वारा पूछे गये प्रश्नों से सहजता से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि श्रीताआ पर प्रस्तुतिकरण का कैसा प्रभाव पड़ रहा है। प्रस्तुतिकरण में तदनुरूप सुधार किया जा सकता है ।

(3) अनुगामिता- अनुगामिता उस समय अधिक होती है जब श्रोता, प्रस्तुतकर्ता की ओर आकर्षित होते हैं। यदि श्रोता प्रस्तुतकर्ता को पसन्द नहीं करते तो प्रस्तुतिकरण प्रभावी नही होगा। डी.टी. रीगन (1971) ने पाया कि अनुगामिता उस समय बहुत बढ़ जाती है जबकि एक व्यक्ति जिसका उसको कहना मानना है वह उसके प्रति कृतज्ञ हो । उदाहरण के लिए जब का अधिकारी किसी ऐसे व्यक्ति से उपहार ग्रहण करता है जिसे वह पसन्द करता है तो आधकारा अन्दर उसकी अनुगामिता करने की बहुत बड़ी प्रवृत्ति होती है और वह ईमानदार होत हुए। पक्षपात कर सकता है । एक अन्य उपयोगी प्रविधि अनुगामिता प्राप्त करने की यह भी है कि पहले एक छोटी सी साधारण प्रार्थना की जाए और बाद में यदि कोई बड़ी प्रार्थना की जाए तो अनुगामिता प्राप्त करने की सम्भावना बढ़ जाती है। विक्रयकर्ता प्रायः इस विधि का प्रयोग करते हैं। इस विधि को “दरवाजे में पाँव रखना” या “उंगली पकड़ कर पहुँचा पकड़ना” कहते हैं । जब प्रस्ततिकरण में कोई छोटा संदेश दिया जाता है तो यह सम्भावना बढ़ जाती है कि आगे प्रस्तुतिकरण में श्रोताओं की अनुगामिता बढ़ जाएगी।

(4) आज्ञा पालन- हमारे समाज में आज्ञा पालन का एक विशेष महत्व है। आज्ञा पालन उस व्यक्ति की जाती है जो दूसरों के ऊपर अपनी शक्ति दिखा सकता है। यदि आज्ञा पालन नहीं किया जाता तो सजा मिलती है । प्रस्तुतिकरण के समय यदि श्रोता कनिष्ठ पदाधिकारी हैं तो संदेश को आज्ञा समझकर ग्रहण करेंगे लेकिन यदि वे वरिष्ठ अधिकारी हैं तो उन्हें प्रभावित करने के लिए प्रस्तुतकर्ता को बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुतिकरण करना होगा।

(5) मुख के भाव एवं धोखा- अनेक श्रोता उन संवेगों को प्रदर्शित करते हैं जो वे अनुभव नहीं कर रहे हैं तथा उनको छुपा लेते हैं जो वे अनुभव कर रहे हैं। यह मुख का कपट या धोखा कहा जा सकता है। नेता राजनीति में, चिकित्सक रोगी के समक्ष, अभिनेता अभिनय के समय प्राय: ऐसा करते हैं। ऐसे श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुतिकरण करते समय प्रस्तुतकर्ता प्रायः उनके सही भाव नहीं पढ़ पाता तथा उसका प्रस्तुतिकरण इससे प्रभावित होता है।

(6) प्रस्तुतकर्ता का व्यक्तित्व- प्रस्तुतकर्ता का व्यक्तित्व उसके प्रस्तुतिकरण पर गहरा प्रभाव डालता है । यदि श्रोता उसके व्यक्तित्व से प्रभावित हैं तो वे सकारात्मक प्रतिक्रिया दे सकते हैं और यदि वे प्रस्तुतकर्ता के व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं हैं तो सकारात्मक प्रतिक्रिया की सम्भावना क्षीण होती है।

(7) आवाज- प्रस्तुतकर्ता का प्रभाव प्रस्तुतिकरण पर बहुत होता है। कक्ष के प्रारूप के अनुसार आवाज में तेजी, आवश्यकतानुसार स्वर में उतार-चढ़ाव, आवाज की ऊँचाई में उचित परिवर्तन, आवाज की गति नियंत्रित रखना, किसी शब्द विशेष पर अधिक या कम बल देना आदि बातें प्रस्तुतिकरण को प्रभावी बनाती हैं। यदि उनमें उचित तालमेल न हो तो प्रस्तुतिकरण निष्प्रभावी हो सकता है।

(8) भाषा अवरोध- भाषा संबंधी अवरोध यदि अधिक हैं तो प्रस्तुतिकरण निष्प्रभावी हो सकता है और यदि वे अवरोध कम हैं तो उसी अनुपात में प्रस्तुतिकरण प्रभावी होता जाएगा।

(9) शब्दोच्चारण- प्रस्तुतिकरण के समय शब्दों के उच्चारण की शुद्धता प्रस्तुतिकरण को प्रभावशाली तथा उच्चारण की अशुद्धता इसे प्रभावहीन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती

(10) आसन- प्रस्तुतकर्ता के खड़े होने, बैठने अथवा झुकने का ढंग भी प्रस्तुतिकरण पर गहरा प्रभाव डालता है। एक ही आसन में स्थित रहने पर या बहुत जल्दी-जल्दी स्थिति बदलने पर प्रस्तुतिकरण प्रभावहीन हो सकता है । उदाहरण के लिए यदि अध्यापक एक ही स्थिति में खड़े-खडे कक्षा में व्याख्या देता है तो उसका प्रस्तुतिकरण उतना प्रभावी नहीं होगा जितना तब होगा यदि वह आवश्यकतानुसार अपनी स्थिति परिवर्तित कर रहा होता है।

(11) अंग मद्रा- प्रस्तुतिकरण के समय प्रस्तुतकर्ता की विभिन्न अंग मुद्राएँ प्रस्तुतिकरण पर गहरा प्रभावी या प्रभावहीन बना सकती हैं । आवाज में परिवर्तन के साथ यदि अंग मुद्रा में भी उचित परिवर्तन हो तो श्रोताओं पर उचित प्रभाव पड़ सकता है। यहाँ पर यह सावधानी रखनी चाहिए कि स्थानीय विशेषताओं के कारण अंग मुद्रा का अर्थ अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग हो सकता है।

(12) ज्ञानात्मक अवरोध- प्रस्तुतकर्ता एवं श्रोताओं की भावनाएँ, पूर्वाग्रह, अनुभव, अहं दृष्टिकोण एवं व्यवहार जितने एक-दूसरे के प्रति अनुकूल होते हैं उतना ही प्रस्तुतिकरण प्रभावी होगा। इसके विपरीत स्थिति होने पर प्रस्तुतिकरण प्रभावहीन हो सकता है ।

(13) श्रवण- श्रवण प्रक्रिया यदि प्रभावी है तो प्रस्तुतिकरण भी प्रभावी होगा और यदि श्रवण प्रक्रिया ठीक प्रकार से नहीं चल रही है तो प्रस्तुतिकरण भी प्रभावी नहीं होगा।

(14) यांत्रिक उपकरण- प्रस्तुतिकरण में काम आने वाले उपकरण यदि ठीक प्रकार से काम कर रहे हैं तो प्रस्तुतिकरण प्रभावी होग और यदि इन उपकरणों में कोई खराबी आ जाती है तो प्रस्तुतिकरण प्रभावशाली नहीं होगा। प्रस्तुतिकरण के सहायक उपकरणों में कम्प्यूटर, माइक, वल्च, ट्यूबलाइट, प्रक्षेपक एल.सी.डी. तथा अन्य उपकरण शामिल होते हैं।

(15) चहल कदमी- यदि प्रस्तुतकर्ता बहुत अधिक इधर-उधर घूमता है तो प्रस्तुतिकरण प्रभावी नहीं होगा और यदि वह आवश्यकतानुसार अपनी चाल को नियंत्रित रखता है तो प्रस्तुतिकरण प्रभावी हो जाएगा। प्रायः ध्यानाकर्षण के लिए, घबराहट से छुटकारा पाने के लिए, प्रस्तुतिकरण का अगला विन्दु सोचने के लिए तथा श्रोताओं पर प्रभाव बढ़ाने के लिए चहल कदमी की जाती है।

(16) मंचीय वाद-विवाद- यदि प्रस्तुतकर्ता और श्रोताओं के बीच प्रस्तुतिकरण को लेकर वाद-विवाद अधिक हो जाता है तो यह एक अच्छा प्रस्तुतिकरण नहीं होगा और यदि वाद-विवाद शंका समाधान की एक सीमा तक रहता है तो प्रस्तुतिकरण प्रभावशाली होगा।

प्रस्तुतिकरण के प्रकार

प्रस्तुतिकरण के उद्देश्यों के अनुसार इसे निम्नलिखित प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है :

(i) सूचनात्मक प्रस्तुतिकरण

(ii) प्रेरणात्मक प्रस्तुतिकरण

(iii) सदभावनात्मक प्रस्तुतिकरण


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1 Response

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